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khud ko khojne ka safar

Thursday, December 23, 2010

मेरा घर मेरे लोग ...

आज कुछ लिखने का मन हुआ ,अभी कुछ दिनों से मै अपने दादाजी के घर गयी हुई थी जोकि पटना से कोई 20  किलोमीटर की दुरी पर है ,असल मे मेरे चाचाजी के बेटे की शादी थी ,मेरे पिताजी भेल भोपाल मे जॉब के चलते भोपाल मे ही बस गए थे ,हमारा वो पुस्तैनी घर से रिश्ता बस शादी या कोई दुर्घटना के समय पहुच जाना जितना ही रह गया था ...फिर मेरी शादी के बाद ये सिलसिला भी मेरे हाथ से चला गया था ,अब जब ये मौका मिला घर खानदान की आखरी शादी मे शामिल होने का तो मै खासी उत्साहित थी ट्रेन मे बैठे बैठे सारे पल बचपन के जो हमने वहां बिताये थे आँखों के सामने घुमने  लगे ,वहां कुछ दिन बिताने के बाद मेरा सारा उत्साह ठंडा पड चूका था ..फिर जो कविता निकली मन से वो आपसे शेयर कर रही हूँ .


    
   

बरसो बाद 
अपने घर लौटना हुआ         
अजीब सी ख़ुशी थी
पलके भीगी हुई थी                                                         
सबने गले लगाया 
कुछ उलाहना भी दिया 
फिर कुछ घंटो मे ही 
अनुमान हो गया 
जिस चीज़ की खोज 
मुझे यहाँ लायी थी 
वो लगाव  तो कहीं खो  गया 
उनके चेहरों  पर था एक डर 
अनजाना सा 
समझ पाई तब जाना 
उन्हें लगा था मै कहीं 
उस जायजाद की बात न करू 
जो मेरे पिता ने कभी मागी नहीं 
तब मुझे अहसास हुआ 
बचपन मै जो आंगन 
बहुत बड़ा हुआ करता था 
हम ढेर सारे भाई बहन 
को अपनी गोद मै लिए 
खिलखिलाता था 
आज अचानक मुझे 
छोटा छोटा क्यों लगा 
मन ही मन मै मुस्कुराई 
बहुत देर से ही सही  
मै ये गूढ़ रहस्य समझ  तो पाई 
घर बड़ा या छोटा नहीं होता 
उनमे रहने वाले 
उसे छोटा करते या विस्तार देते है 
प्यार ,यादे ,रिश्ते भी जायदाद है 
कभी कभी बड़े भी नही समझ पाते हैं 
मै अपना हिस्सा अपने साथ ले आई....
अपनी बचपन की सारी यादो को 
समेटकर  मै वापस चली आई